बोझ
दिन के करीब
एक बजे गरीब रथ मधुबनी रेलवे स्टेशन पहुंची। यहां से गांव तक की यात्रा मिनी बस से
करनी थी। लालटेमपट्टी मिनी बस स्टैण्ड से हर घंटे गांव के लिए मिनी बस खुलती। बरसात
का मौसम होने के कारण कींचड से पटी सडक पर छोटे-छोटे गड्ढे मे पानी भी भरा हुआ था।
बस स्टैण्ड की शुरूआत वाली चाय की दुकान तक पहुंच कर रूका। चारों तरफ नज़र दौडाई तो
सडक के उस पार ‘छोला-घुघनी’ की झोपडीनुमा दुकान के आगे रखी बेंच पर बैठे वृद्ध पर नज़र
पडी। मै चौंक गया। अरे! यह तो ‘खेलन’ है। मन के अन्दर तूफान हिलकोर मारने लगा और हाथ पांव फूलने
लगे। कैसे मैं उससे आंख मिला पाऊंगा? क्या वह मेरी बातों पर भरोसा करेगा? जब वह
मुझसे फगुनी के बारे में पूछेगा तो मैं क्या जबाब दूंगा? मेरी चेतना शून्य होने
लगी और अचानक शून्यता के आभास से खडा रह पाना मुश्किल लगने लगा। उसके अटूट भरोसे
का वज़न, जिसे सम्भाल पाने में मेरा शरीर असक्षम था। एक क्षण के लिए ऐसा लगा कि
ज़मीन का वह टुकडा जहां पर मैं खडा हूं वह नीचे फट जाएगा और मैं सीता की तरह पृथ्वी
में समा जाउंगा। सीता की तरह नहीं... सीता तो आत्मसम्मान के रक्षार्थ पृथ्वी में
समा गई थी। मैं किस आत्मसम्मान को सम्भालूंगा? मेरा किसने अपमान किया है? मानसिक हलचल
के कारण मेरी शारिरिक स्थिति एक साधारन बैग भी सम्भालने लायक नही रहा। मैंने कन्धे
पर लटके बैग के साथ खुद को भी बगल मे रखी बेंच पर धम्म से पटका। आस-पास के सभी लोग
चौंक गए, मुझे शर्मिन्दगी का एहसास हुआ। बगल में चाय पी रहे वृद्ध ने पता नही मेरी
स्थिति का क्या अन्दाज़ा लगाया और मुसकुराते हुए पूछा “कहां जाएंगे
बाबू?”
मैने सन्यमित होकर कहा “भटसिमर”। बुढे ने कहा “धडफडाईए नही, आराम से चाय पीजिए, बस आने में टेम है। दिल्ली से
आए है?“ मैने
सहमती से सर हिलाया। लडका चाय का ग्लास मुझे थमा गया। मैं चाय पीने लगा। नज़रें
बचाकर सडक के उस पार ‘छोला-घुघनी’ के दुकान में बैठे खेलन की स्थिति का अन्दाज़ लगाने लगा। मैं
सावधानी बरतते हुए उसी चाय की दुकान के एक कोने में बैठ गया। अब मैं खेलन को दिखे
बगैर उस पर नज़र रख सकता था।
मेरी चाय खत्म
होने के साथ ही एक मिनी बस आई। खलासी आवाज़ लगाने लगा “राजनगर,
बरहारा, मैलाम, भटसिमर...।“ उस रूट के सभी यात्री धक्कामुक्की करते हुए बस में चढने लगे।
मैं दुविधा मे था। मुझे बस की तरफ बढते न देखकर बगल में खडे वृद्ध ने याद दिलाया “आपकी बस तो आ
गई।“
मैं इस तरह चौंका जैसे मेरी चोरी पकडी गई हो। मैने सोचा खेलन इसी बस से जाएगा अगर मैं
भी इसी बस में चढा और उससे आमना-सामना हो गया तो? नहीं, नहीं मैं इस बस से नही
जाउंगा। अपनी असहजता छुपाते हुए जबाब दिया “मेरा एक दोस्त आने वाला है उसका
इंतज़ार कर रहा हूं अगली बस से जाउंगा।“
मैं सोचने
लगा अच्छा हुआ खेलन पर मेरी नज़र पहले पड गई। भगवान सब भले के लिए करता हैं। मेरे
साथ ऐसा करने मे मेरी क्या भलाई छुपी हो सकती है? कितना अच्छा मेरा खाता-खेलता
परिवार है, सुन्दर-सुशील पत्नी, लगभग साल भर का बेटा और सरकारी बैंक में अच्छी नौकरी।
समाज में इज़्ज़त से देखा जाता हूं। लोग अच्छे-भुरे वक्त मे सलाह भी मांगते हैं। अभी
यदि मैं खेलन के सामने पड जाता तो? उसके बाद समाज मे यह सम्मान, अपनी पत्नी, बाबू,
मां आदि से कभी नज़र मिला पाता?
याद आता है
कि जब मेरी नौकरी का नियुक्ति पत्र आया तो खेलन बहुत खुश हुआ था। धान बेचकर टोले
भर के लोगों को ‘पिसुआ की भट्ठी’ में ताडी पिलाई थी। बाबू (अपने पिता को हम बाबू ही कहते है),
के सामने जोगिरा गाने लगा था। नशे में ही कहा था “बडका मालिक मैं भी छोटका बाबू के
साथ दिल्ली जाउंगा मरने से पहले दिल्ली देख लूंगा तो गदहा जनम सफल हो जाएगा।” वैसे खेलन
उम्र में मेरे पिताजी से एक-दो साल बडा ही होगा फिर भी आज तक ताडी पीकर उनके सामने
नही आया था। उस दिन पता नही कहां से उसे इनती हिम्मत आ गई? खेलन का मेरी ज़िन्दगी
मे बडा ही दखल रहा है। कार्तिक पूर्णिमा, दुर्गा पूजा आदि का मेला हो या फिर पडोस
के गांव मे भोज (निमंत्रण) में जाना हो, हमेशा खेलन के कन्धे की सबारी करता। खेलन
की कृपा से ही आम के मौसम में गांव भर मे सबसे पहले मेरे हाथ मे पका हुआ आम आ जाता
था। उसी के कारण अपने दोस्तों के बीच धौंस जमाने का मौका मिलता। वह बचपन में मेरे लिए
किसी अलादिन के चिराग से कम नही था।
गांजा की तेज़
गन्ध से मेरी तन्द्रा टूटी। मेरी ही बेंच पर बैठे दो युवक सिगरेट में गांजा भरकर
पी रहे थे। मन तो किया कि दोनो को डांट पिलाऊं पर्ंतु शोर मचाकर कोई खतरा नही ले
सकता था। बस चली गई थी। खेलन को अपने स्थान पर ना पाकर मैं आश्वस्त हो गया। उठकर
दुकान से बाहर निकलने ही वाला था कि एक पान दुकान पर खेलन चार-पांच पहलवान टाईप लोगों
के साथ बात करते हुए दिखाई दिया। कुछ देर बाद वे लोग चारो तरफ बिखर गए जैसे
बेसब्री से किसी को ढूंढ रहे हो। मैं फिर से चाय की दुकान में दुबक गया और अब मुझे
गांजा की गन्ध इतनी अप्रिय नही लग रही थी। मैं सोचने लगा-सब आपस में क्या बात कर
रहे थे? सबके चेहरे पर बेचैनी और आक्रोश क्यों झलक रहा था? उनमे दाढीवाला तो डकैत
जैसा लग रहा था। खेलन के ससुराल में ज्यदातर लोग डकैती ही करते है। शायद ये लोग उसके
ससुराल के ही थे। पर, किसे खोज रहे थे? कहीं मुझे तो नहीं? अपनी तीन पीढियों के
पालनहार का एहसान वह भूल जाएगा? परंतु इसे, मेरे आने की सूचना कैसे मिली? घर में
मेरी पत्नी और बैंक मैनेजर के अलावा किसी को पता ही नही है कि मैं गांव जा रहा
हूं। कहीं पत्नी ने बाबूजी को फोन पर बता तो नही दिया? अवश्य बता दिया होगा और
बाबूजी से बात निकल गई होगी। यह सब सोचकर पत्नी पर गुस्सा आया एक बात भी पचा नही
सकती।
तभी वह
दाढीवाला चाय की दुकान के बाहर आकर चारो तरफ नज़र फिराने लगा। मेरे प्राण मुंह मे
अटक गए। मैं बगल मे रखे अखबार से अपना मुंह ढकते हुए पढने का बहाना करने लगा।
गुस्सा खुद पर भी आया। क्यों मैने अपने प्राण संकट में डाले? मुझे नही आना चाहिए
था। पर इस सबमे मेरा क्या दोष था? मैने जानबूझकर कोई गलती नही की थी। तभी एक बस
चाय की दुकान के बगल आकर खडी हो गई। खिडकी के बगल में बैठी लडकी वैसी ही सुर्ख लाल
साडी और लाल लहठी पहनी हुई थी जैसी विदाई के समय फगुनी ने पहनी थी। अब मन मे आया
मेरी गलती हो या ना हो क्या फगुनी के प्रति मेरी कोई जिम्मेवारी तो अवश्य बनती थी?
आज महसूस होता है कि उसकी पूरी जीवनयात्रा में मैं सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति
था।
खेलन की
तीसरी लडकी थी फगुनी। रूप की काट और हाथों के गुण के कारण गांव भर में सब उसे बहुत
प्यार करते थे। उम्र में मेरे से चार-पांच साल छोटी फगुनी जब वह विद्यापति की
नचारी गाती तो सब मंत्रमुग्ध रह जाते थे। खेलन और उसकी पत्नी मेरे यहां ही काम
करते थे और उसके बच्चे भी मेरे आंगन मे पले-बढे थे। जनम के समय ही उसकी सुन्दरता
देखकर खेलन को अपनी पत्नी पर शक हुआ था बाद मे एक दिन झगडे मे एक औरत ने कह ही
दिया कि फगुनी की शक्ल गांव के कर्मचारी से मिलती है। उस दिन खेलन ने अपनी पत्नी
को बहुत पीटा था और अगले ही लगन मे फगुनी की शादी के साथ गौना भी दूर के गांव में
कर दिया गया। सात साल की फगुनी अपने ससुराल चली गई। मेरे कई छोटे-बडे काम फगुनी
करती थी। उसकी कमी मुझे भी खली थी।
मैं कुछ
दिनों के बाद आठवीं कक्षा में शहर के एक होस्टल मे चला गया। दो साल बाद जब दसवीं की
परीक्षा देकर छुट्टीयों में गांव आया तो एक दिन सुबह खेलन और उसकी पत्नी रोते हुए
बाबूजी से कुछ बातें कर रहे थे। साथ मे बिना सिन्दूर और चूडी के फगुनी खडी थी। कलाईयों
में लाल लहठी डाले तथा लाल जोडे मे लिपटी फगुनी का जो चित्र मेरे मस्तिष्क में बसा
था वह चकनाचूर हो गया। सामने खडी फगुनी काफी बदली हुई और उम्र से कुछ बडी ही लग
रही थी। दरअसल फगुनी का पति तपेदिक से चल बसा और उसके ससुराल वालों ने उसे छोड
दिया था। बाबुजी ने उसे यही रखने को कहा।
अब फगुनी मे
वो बाल चंचलता नही रही। वह अब अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेलने के बजाए ज्यादातर
औरतों के झुंड के आस-पास समय गुजारती थी। उसकी दीन-दुनियां ही बदल चुकी थी। उसे
बात-बात पर टोका जाने लगा था। बाल सुलभ चंचलता से खिली रहनेवाली फगुनी मुरझा रही
थी। लोग उसे अपशगुन और अमंगल के रूप मे देखने ही नही लगे थे बल्कि उसका तिरस्कार
भी करने लगे थे। मुझ से कटे-कटे रहने के बाबजूद परोक्ष में मेरा सारा काम बिन कहे
ही करती थी या यूं कहें की मेरा काम करने के लिए मौका ढूंढती रहती थी। मैं पुनः
आगे की पढाई करने शहर चला गया।
कुछ सालों
बाद बी ए खतम करने के पश्चात जब गांव गया तो फगुनी का एक बदला हुआ स्वरूप पाया।
फगुनी पके हुए फलों से लदे वृक्ष जैसी लग रही थी। फटी-पुरानी उतरन पहनने वाली
फगुनी के चेहरे की कांति और भव्यता से बडे घर की बहु-बेटीयां भी जलतीं थी। वो मेरे
सामने भी आने से झिझकती थी। मैं आंगन मे होता तो वह भंडार घर मे कोई काम मे लग
जाती परंतु उसकी नज़रें हमेशा मेरे आस-पास ही होती।
एक दिन खेलन से
मैने फगुनी की शादी दुबारा करा देने के लिए कहा तो उसने डबड्बाई आंखो से कहा–“जयबार भर
कोशिश करके देख लिया बाबू, किस-किस के पैर नही पकडे? एक तो हमारी जात में जबान
बेटी की शादी नहीं होती उपर से यह तो विधवा है।“ लम्बी सांस लेकर खेलन बोला – “छोटका मालिक,
यह सब शहर मे होता होगा।“ हम दोनो चुप हो गए। शाम को मां से पता चला कि अब वो कुछ
असमान्य हरकतें भी करने लगी है जैसे उसपर कोई पागलपन सबार हो। मन फगुनी के प्रति
सहानुभूति से भर गया। अगले दिन शाम को घर के पिछवाडे से किसी को पीटने की आवाज
आयी। मैं दौडकर गया तो देखा फगुनी की मां उसे पीट रही है और वह पत्थर सी खडी है।
मुझे देखकर् फगुनी की मां ने फगुनी को मारना छोड्कर मुझसे माफी मांगते हुए कहा-
छोटका मालिक यह नादान है इसे माफ कर दीजिए, गलती से आपका अंगा (शर्ट) पहन लिया है
इसका माथा खराब हो गया है। इसे माफ कर दीजिए। मैने कहा – “शर्ट पहनने
से क्या हो गया। बचपन से तो मेरे ही पुराने कपडे पहनती आ रही है।“ उसने कहा- “मालिक तब की
बात और थी।“
वो गिड्गिडाने लगी और मां नही बताने की आग्रह करने लगी। मेरी उपस्थिति का भान होते
ही फगुनी नीम्बू के झाड की तरफ आंख नीचे कर बैठ गई जैसे लजा गई हो। मै उन्हे
आश्वस्त करते हुए वापस आ गया। फगुनी का मेरी शर्ट पहनना, उस पर उसकी मां इतनी तीखी
प्रतिक्रिया, मेरी मां नहीं बताने का आग्रह इन सब बातों का मतलब निकालने की उलझन
में मैं फंसा वापस आ गया। पता नही किस तरह यह बात मेरी मां के कानों तक पहुंच गई
और वह भी किसी अनजान उलझन में उलझ गई।
मुझे आगे
पढाई के लिए दिल्ली आना पडा। दो साल बाद मेरा चयन एक बैंक में अधिकारी के पद पर हो
गया और उसी साल शादी भी हो गई। नई-नई नौकरी होने के कारण शादी मे छुट्टियां कम ही
मिलीं। शादी में गांव गया तो पंचतंत्र की कहानियों की तरह फगुनी के बारे मे कई
कहानीयां अलग-अलग लोगों के मुंह से सुनी। कोई कहता की यह डायन सीखती है तो कोई
कहता यह घंटो स्कूल वाले पीपल के पेड से बात करती रहती है। सब इससे सहमत थे कि वह
पागल हो गई है और पागलपन का दौरा शुरू होने से पहले अजीब तरह से अंगैठीमोड (एक
विशेष प्रकार से शरीर को ऐंठना) करती है। मैं घर शादी से दो दिन पहले पहुंचा था।
लोग इस आश्चर्य में थे कि कल तक कीचड मे सनी, पागल सी दिखने वाली फगुनी आज सुबह से
एकदम बनठन कर घर के काम मे मगन थी। मैं अपनी शादी में करीब एक सप्ताह बाद वापस
अपनी पत्नी के साथ दिल्ली आ गया। इस बीच फगुनी समान्य रही थी। इस बार मुझे वही सात
साल वाली फगुनी लगी थी।
मेरे गांव
जाने वाली एक और बस आ गई। “राजनगर, बरहारा, मैलाम, भटसिमर...।” खलासी की आवाज गूंजी। चार बज रहे थे। मैने सोचा
अब थक-हारकर खेलन अपने पहलवानों के साथ घर लौट जाएगा। मैने निर्णय लिया छ: बजे
वाली बस पकडूंगा ताकि घर पहुंचते-पहुंचते अन्धेरा हो जाए। बस को अनदेखा कर दिया।
चायवाले ने मुझे घूरा। वैसे तो मै अबतक पांच चाय पी चुका था फिर भी ज्यादादेर बैठने
पर उसे गुस्सा आ गया तो? या फिर उसे मुझपर शक हो गया और खेलन के पहलवानों को बता
दिया तो? अब इस दुकान पर ज्यादा देर बैठने में खतरा था।
तब तक बस खुल
गई। खेलन के पहलवान बस के पीछे दौडने लगे तथा बस को रोकने के लिए आवाज़ लगा रहे थे।
थोडी दूर आगे चलकर बस रूक गई। दनादन दो पहलवान बस के अन्दर घुसे और बाकि बाहर ही
खडे रहे। कुछ देर बाद दोनो बाहर आए और बस चल पडी। सब इधर ही आ रहे थे मै पुन: अपने
स्थान पर अखबार लेकर बैठ गया। वे दुकान के बगल मे खडे होकर बातें करने लगे जो मुझे
साफ सुनाई दे रही थी। एक आदमी कह रहा था – “ट्रेन आए चार घंटे हो गए, स्टेशन
से बाज़ार तक एक-एक आदमी को देख लिया हमने। आया होता तो मिल ही जाता।“ दूसरे ने
कहा- “हो
सकता है कि डर के मारे रास्ते से ही वापस चला गया हो।“ खेलन ने जोर
देकर कहा –
“नही
वह अवश्य आया होगा। हमलोग यहां उसका इंतज़ार कर रहे हैं उसे कैसे पता चलेगा? मेरा
मन कहता है वह जरूर आया होगा।“ दाढीवाले ने समझाया – “यहां आएगा तो गांव जरूर जाएगा,
वहीं पकड लेंगे, छोडेंगे नही। अब घर चलते हैं।“ खेलन निर्णय सुनाया – “ तुमलोगों को
जाना है तो जाओ, मै उसे सजा दिए बगैर नही जा सकता।“ चौथे ने कहा- “ठीक है, एकबार पुराने बस अड्डे
पर देख लेते हैं।“ खेलन ने कहा – “मैं यही पर इंतज़ार करता हूं।“ वह घुघनी-छोला की दुकान के बाहर बेंच पर पुन: बैठ
गया।
अब मेरा यहां
से निकलना अत्यन्त आवश्यक हो गया था। परंतु कहां जाऊं? अब तो गांव भी नही जा सकता,
वापस दिल्ली ही जाना पडेगा। तभी याद आया पौने पांच बजे बरौनी के लिए एक ट्रेन है। वहां
से जो भी दिल्ली की गाडी मिलेगी पकड लूंगा। अपनी सारी हिम्मत बटोरकर मैं उठा, चाय
वाले को पैसे देकर, छुपते हुए, दुकान से निकला और स्टेशन की तरफ भागा। स्टेशन पर
पता चला ग़ाडी आने में लगभग आधा घंटा बाकि है। स्टेशन पर बने सुलभ शौचालय वाले के
पास बैग रखकर अन्दर घुस गया। गन्दे-बदबूदार शौचालय मे लगभग पच्चीस मिनट बिताने के
दौरान अपनी रक्षा के लिए जिस किसी भी भगवान को याद कर सकता था किया। बाहर आकर
प्लेटफार्म पर सबसे आगे गंगास्नान करने जाने वाली औरतों के झुण्ड साथ मिल गया।
गाडी आई सबसे पहले चढकर खिडकी वाली सीट पर बैठ गया। ट्रेन खुली तो मैने चैन की
सांस ली। गंगास्नान को जानेवाली औरतें आस-पास बैठ चुकी थी उनकी बातों से पता चला
कि वे लोग मेरे पडोस के गांव की हैं। ट्रेन ने स्पीड पकडी। पेड-पौधे, आदमी,
गांव-घर, खेत-खलिहान, दुकान-मैदान सब पीछे छूटते जा रहे थे। मैने अपने आप को कभी
इतना कायर और लाचार महसूस नही किया था। मुझे अपने दिमाग की बात मानकर यहां नही आना
चाहिए था। तो क्या फगुनी के प्रति मेरा कोई दायित्व नही है? प्रश्न दिल से उठा।
दिल और दिमाग मे द्वन्द फिर से छिड गया। वैसे भी गलती तो मेरी ही थी भले ही अंजाने
मे हुई हो। मुझे याद आती है पिछली शिवरात्री की रात। यह वही रात थी जिसने मुझे
अपराधी बनाकर आज इस हालत में लाकर खडा कर दिया।
शिवरात्री के
तीन दिन पहले बाबूजी एक सडक दुर्घटना मे घायल हो गए थे। मुझे फोन पर सूचना मिली और
मैने उसी शाम गांव के लिए ट्रेन पकड ली। घर पहुंच कर देखा- बाबूजी के पैर में
प्लास्टर चढा था और एक दो जगह हल्के घाव भी थे। डाक्टर ने बताया की पैर मे हेयरलाईन
फ्रेक्चर है प्लास्टर कर दिया है बीस दिन ठीक हो जाएंगे। घबराने वाली बात नही थी। उधर
दिल्ली में पत्नी नवजात बच्चा के साथ अकेली थी इसलिए मैने अगले ही दिन वापस जाने
का निर्णय ले लिया। बाबूजी ने कहा कि – “कल शिवरात्री है परसो सुबह चले
जाना।“
मैं रूक गया। शाम को गोधुली में, मुझे नीम के पेड के नीचे किसी के बैठे होने का
आभास हुआ। मैं पेड के पास चला गया। अन्धेरे में लगा जैसे कोई औरत बगल मे गठरी दबाए
बैठी हो। अचानक वह आकृति मुझे देखते ही भाग गई। आंगन में आकर मां को बताया तो मां
ने कहा –
“वह
फगुनी होगी। बेचारी अब निछछ पागल हो चुकी है। एक कपडे की गठडी दबाए दिन-रात खोई
रहती है उसे नीन्द भी नही आती। अब तो उसे बच्चे पत्थर भी मारने लगे है। मेरे मन में
उसे एक बार मिलने की ईच्छा हुई।
अगले दिन
सुबह से ही गांव में शिवरात्रि की धूम मची थी। महादेव की बारात सजाने और झांकी
निकालने मे लोग व्यस्त थे। हर घर में भांग बाल्टी भर कर घोली जा रही थी। महादेव की
बारात घर-घर जाती है और लोग बारातियों का स्वागत भांग से ही करते हैं। महादेव
मन्दिर के मुख्य पंडा सुबह-सुबह बाबूजी का हाल-चाल जानने आए। लोगों के मना करने
बाबजूद बाबूजी ने कहा- “भले की मेरे एक पैर पर प्लास्टर चढा हो पर मैं अभी जिन्दा हूं।
परम्परा को टूटने नही दूंगा। मैं पूजा पर अवश्य बैठूंगा। तो यह तय हुआ कि पूजा के
समय बाबूजी के बैठने लिए उचित प्रबन्ध किया जाएगा। मैं और मेरी मां उनके साथ ही रहेंगे
और खेलन वहीं बाहर बैठेगा।
दोपहर बाद
महादेव की बारात निकली। दोस्तों ने मुझे भी साथ ले लिया। मना करने के बाबजूद भी
उन्होंने प्रसाद कहकर मुझे भांग पिला दी जो मुझ पर चढने लगी थी। करीब दस घर घूमने
के बाद मैं वापस घर आकर लेट गया। शाम को मां जगाया तो सब पूजा में जाने को तैयार
थे। मैं भी तैयार होकर मन्दिर पहुंचा। प्रथम चरण की पूजा के बाद महादेव का प्रसाद-भांग
बांटी जाने लगी। मुख्य पंडा ने मुझे फिर से एक ग्लास पिला दी। दूसरे चरण की पूजा
रुद्राभिषेक से शुरू हुई। कुछ देर बाद भांग के नशे के कारण मेरा सिर घुमने लगा। खेलन
की पारखी नज़र सब समझ गई और उसने मुझसे कहा घर जाकर आराम को कहा। मैंने घर का
रास्ता पकड लिया। आधे रास्ते के बाद मेरे पैर डगमगाने लगे। मुझे आभास हुआ कि कोई मेरा
पीछा कर रहा है। मुझे ठीक-ठीक याद है अपने आंगन तक पहुंच गया था। अचानक सिर जोर से
चकराने लगा और मैं गिरने ही वाला था कि किसी ने मुझे सम्भाल लिया। उसके बाद मुझे
कुछ याद नहीं।
सुबह के करीब
साढे चार बजे जब मेरी नींद खुली तो खुद को घर के बरामदे वाले पलंग पर पाया। किसी
के स्पर्श के आभास से चौंककर उठा। बगल मे निढाल सोई फगुनी और उसकी अवस्था देखकर
मेरा अस्तित्व कांप गया। एक क्षण के लिए लगा कि सब कुछ घूम रहा है, और मैं संज्ञा
शून्य हो रहा हूं। हाय! यह कैसा अनर्थ हो गया? कुछ ही देर बाद मन्दिर के
लाउडस्पीकर की आवाज़ से लगा कि महादेवमठ में कार्यक्रम खत्म हो चुका है। घर के लोग
कुछ ही देर मे वापस आ जाएंगे। मैने झट से फगुनी के ऊपर कपडा डालकर आंगन से बाहर
निकलने लगा तो देखा कि पलंग के नीचे रखी फगुनी की गठरी से मेरी वही शर्ट झांक रही
थी। आंगन से बाहर आकर दरवाजे पर रखी खाट पर लेट गया। अभी-अभी घटी घटना की हलचल से नींद
और नशा दोनो ही गायब हो गए थे।
करीब दस मिनट
बाद घर के सभी लोग वापस आ गये थे। मैने बहाना बनाकर उठते हुए कहा – “मुझे सात बजे
की गाडी पकडनी है और पांच बज चुके हैं इसलिए अभी तैयार होकर निकलना पडेगा।” बाबूजी ने बेमन से ट्रैक्टर के ड्राईवर को
जगाया। आधे घंटे बाद मै खेलन के साथ ट्रैक्टर पर सबार होकर मधुबनी के लिए निकल पडा।
दिल्ली पहुंचकर अपनी दुनियां में मस्त हो गया। हां कभी-कभी जरूर इस घटना को याद
करके मन अपराबोध से ग्रस्त हो जाता था।
अपने प्रदेश के
अखबार का इंटरनेट संस्करण मैं रोज़ पढता था। गांव से आने के सात महीने बाद एक दिन
अपने ज़िले की एक खबर पढी कि “एक विक्षिप्त, विधबा लडकी ने अपने प्रेमी से धोखा खाकर पेड से
लटक कर जान दे दी। लोगों का शक उसी गांव के एक सम्भ्रांत नौजवान पर है।” मेरी
मन:स्थिति ही बदल गई। लहठी पहने, मेरी शर्ट पहने और शिवरात्री के रात निढाल पागल
सी सोई फगुनी का चित्र मेरी आंखों के सामने घूमने लगा। अनजाने मे हुए अपराध के बोझ
से दबे मन मे उठे झंझावत के बाद मैने अचानक गांव जाने का फैसला कर लिया। अपने बैंक
ई-मेल द्वारा छुट्टी का आवेदन भेज दिया। पत्नी से टूर का बहाना बनाकर गांव जाने के
लिए सुबह ही गरीब रथ पकड लिया। उस समय अगर दिमाग की बात सुनता तो आज ये भोगना नही पडता।
मेरे
कम्पार्टमेंट मे बैठी औरतों के झुंड में घुसने की कोशिश कर रहे एक लडके के बीच बहस
हो रही थी। अगल-बगल के पुरुष-यात्री भी आकर उस लडके को डांटने लगे। मेरे गांव के
एक चाचा भी उस झगडे मे शामिल थे। लाख चाहकर भी मैं छुप ना सका। उन्होने मुझे देखते
ही झगडा छोड मुझसे पूछा- “कब आए? गांव मे देखा ही नही।“ मैने किसी तरह सन्यमित होकर कहा-“आफिस के टूर
पर आया था समय कम होने की कारण गांव नही जा पाया।“ उनका आश्चर्य और मेरी शंका दोनो बढ गई। मैने बात
बदलते हुए पूछा-“आप कहां जा रहे हैं?” उन्होने कहा- “क्या बताएं
देर हो गई। खेलन के साथ आज दिन भर मधुबनी में भटकना पडा।“ खेलन का नाम
सुनते ही मैं घबडा गया। मैने पुछा-“क्यूं क्या हुआ?” उन्होने आगे कहा-“खेलन का भतीजा फगुनी के ससुराल
से गहने चुराकर कर दरभंगा भाग गया था। आज पता लगा की वह ट्रेन से मधुबनी आने वाला
है उसे ही ढूंढने के लिए खेलन और उसके ससुराल के चार–पांच लोगों के
साथ दिन भर दौडा हूं। मेरे मुंह से निकला- “फगुनी की ससुराल-----? उन्होंने
कहा –
“हां
फगुनी, उस बेचारी का जीवन भी अजीब है। पिछली शिवरात्री को महादेव की ऐसी कृपा हुई
की अचानक उसका पागलपन ठीक हो गया और अगले लगन मे उसकी शादी एक अच्छे घर मे हो गई।
वहीं से खेलन का भतीजा उसके गहने चोरी करके भागा है। वह कुछ देर पहले ही पुराने बस
अड्डे पर पकडा गया। इस चक्कर मे पडकर मैं लेट हो गया नही तो मुझे दस बजे बाली गाडी
से जाना था।“
मैं अपनी सीट
पर निढाल होकर बैठ गया।
औरतों की
झुंड उस लडके के चरीत्र पर बात कर रही थी। एक औरत ने कहा–“किसी पर
भरोसा नही होता। अपने गांव की घटना ही देखो पलटन बाबू के बेटे पर कोई शक कर सकता
था? कोई कह सकत था की रामखेलावन की सत्रह वर्ष की विधबा लडकी की वह ऐसी हालत कर
देगा की उसे पेड पर लटकना पडेगा?”
पलटन बाबू और
रामखेलावन दोनो मेरे पडोसी गांव के थे।
धडधडाते हुए ट्रेन
पूरी स्पीड से आगे बढ रही थी।
पवन झा “काश्यप कमल”
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