तुम! चिंता मत करो (हिन्दी कविता)


तुम! चिंता मत करो


तुम! चिंता मत करो
आग लगे या बज्र गिरे
घन फटे या बरसा झरे
करम पथ पर अडिग रहो
तुम! चिंता मत करो


विरासतों की चाहे नींव खिसके
थाली की रोटी चाहे कुत्ते खींचे
नमक-तेल मे भी पासंग ही मिले
दाल के पानी से ही काम चलाते रहो
तुम! चिंता मत करो 


हरदम नया-नया अन्वेषन हो
तुम्हारे कर्मों की चाहे जितना छिद्रान्वेषन हो
सफलता-असफलता की आंखमिचौली हो
अपने कर्म की लाठी कस के थामे रहो
तुम! चिंता मत करो


फटी कमीज़ हो या फिर क़टी जेब हो
पैरों मे टूटी चप्पल हो या घर मे रुठी देवी हो
रसोई मे चल रहे चुहों का अनशन हो
या आधे महीने में ही खत्म हो रहा वेतन हो
पपडाए हुए होठों को अपनी जीभ से पनियाते रहो
तुम! चिंता मत करो
ईष्ट-मित्र चाहे बाजारू हो जाएं
लोक-वेद तुम्हें बेकार ही समझे
निन्दा के अग्निवाण् चलाए
अपनी पीठ को आगे करते रहो
तुम! चिंता मत करो


बतुता का जूता हो या गान्धी की लाठी
जयप्रकाश का झोला हो या टैगोर की दाढी
बोस का चश्मा हो या नेहरु का गुलाब
विवेकानद की पगडी या और अज़ाद का रोआब
अम्बेदकर की टाई हो या झांसी की बाई
कलाम के बाल हो या या अन्ना की टोपी
वे, इनके भी बज़ार में भाव करेंगे  
प्रगतिवाद का सब्जबाग तुम्हें दिखाएंगे
निरंतर, बैल बना हल में जोतेंगे
हर पांच वर्ष पर, तुम्हें दण्डवत करेंगे
तुम्हारे स्व और अभिमान के द्वन्द छेड देंगे
तुमको ही तुमसे चाहे अलग कर देंगे
ऐसे 'जन' को भी, 'हरि' मानकर
खुद को,  शालीनता के पथ पर अग्रसर करो
तुम! चिंता मत करो



चौराहे पर द्रौपदी का चीर खिंचे
चक्रव्युह मे फंसकर अर्जुन पिटे
वातावरण में व्याभिचार का प्रदुषण हो
असत्य, हिंसा, कुटिलता, भ्रष्टाचार का ही बोलबाला हो
सत्ता जब मदान्ध हो जन से दूर हो चले
लक्ष्मी जब, दरिद्रता का कारण बनने लगे
घावों के पीप भी, जब सुगन्धित लगने लगे
नरमुंडों की भीड में खुद का स्व भी बिखरने लगे
दिलवालों की दिल्ली से जब दिल ही गायब होने लगे   
सावधान!
खुद को, इन अनैतिक भंवर के पार धकेलते रहो    
तुम! चिंता मत करो

पवन झा "काश्यप कमल" 

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